तीसरी बार श्रीलंका का राष्ट्रपति बनने के लिए महिंदा राजपक्षे इतने आशान्वित थे कि उन्होंने समय से दो साल पहले ही राष्ट्रपति चुनाव करवा लिए थे। इस बार वे जीतते तो शायद श्रीलंका में लोकतंत्र के कमजोर होने की कीमत पर वंशवादी राजनीति और अधिनायकवाद को मजबूती मिलती। श्रीलंका के मतदाताओं ने समझदारी दिखाई और राजनैतिक, प्रशासनिक और आर्थिक सुधारों का वायदा करने वाले संयुक्त विपक्षी उम्मीदवार मैत्रीपाल सिरिसेना को नया राष्ट्रपति चुना। लंबे समय बाद श्रीलंका में एक ऐसी सरकार सत्ता में आई है, जिसे देश के उत्तरी और दक्षिणी दोनों ही क्षेत्रों में पर्याप्त समर्थन मिला है। जो न सिर्फ सिंहली बहुसंख्यकों का बल्कि तमिल और मुस्लिम अल्पंसख्यकों का भी विश्वास जीतने में सफल रही है। सिरिसेना के नेतृत्व वाले नवीन लोकतांत्रिक मोर्चे (एनडीएफ) को राष्ट्रपति चुनाव में स्पष्ट बहुमत मिलने से श्रीलंका में लोकतंत्र तो सुदृढ़ हुआ ही है, उसकी राष्ट्रीय एकता को भी मजबूती मिलनी चाहिए।मैत्रीपाल सिरिसेना की विजय भारत के लिए एक सकारात्मक घटना है क्योंकि पिछले राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे का दृष्टिकोण भारत के प्रति अधिक मैत्रीपूर्ण नहीं था। उनके दर्जनों फैसलों और कदमों ने भारत-श्रीलंका संबंधों पर असर डाला है और उनके बीच अविश्वास की खाई को बढ़ाया है। इसे श्रीलंका में भारत के हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि से जोड़ कर देखा जाए या फिर हमारे पड़ोसियों को दिए जा रहे अनवरत चीनी प्रलोभनों से, किंतु यह एक खुला तथ्य है कि राजपक्षे के राष्ट्रपति काल में भारत श्रीलंका पर बतौर मित्र राष्ट्र भरोसा करने की स्थिति में नहीं रह गया है। जिस तरह भारत की सरकारों ने श्रीलंका के लिए अपना अस्तित्व तक संकट में डाला है (द्रमुक ने श्रीलंका के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में मतदान की मांग को लेकर संप्रग सरकार से समर्थन वापस लिया था), उसके बावजूद श्रीलंका का हमारे प्रति शत्रुतापूर्ण रुख अख्तियार करना गहरे अफसोस का विषय रहा है। मैत्रीपाल सिरिसेना और उनके द्वारा नियुक्त किए गए नए प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे का दृष्टिकोण हमारे प्रति अधिक मैत्रीपू्र्ण माना जाता है इसलिए श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनावों का भारत के लिए भी खासा महत्व है। यही वजह है कि श्री सिरिसेना की जीत के बाद उन्हें निजी तौर पर बधाई देने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्परता दिखाई है।
यूँ भारत में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद श्रीलंका के साथ संबंधों में सुधार की उम्मीद बंधी थी। केंद्र में कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के दस साल का शासन खत्म होने के बाद स्वाभाविक रूप से दोनों देशों को नई शुरूआत का मौका मिला था। श्री मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह के दौरान पड़ोसी देशों के शासनाध्यक्षों को आमंत्रित कर अपने मैत्रीपूर्ण रुख का परिचय भी दिया था। राजपक्षे इस मौके पर भारत आए भी और उनकी भारत यात्रा के विरोध को केंद्र सरकार ने पूरी तरह अनदेखा भी किया। लेकिन फिर भी, आपसी अविश्वास की फांस निकल नहीं सकी। इसका एक उदाहरण काठमाडौ में आयोजित सार्क शिखर सम्मेलन के दौरान देखने को मिला जब पाकिस्तान के साथ-साथ श्रीलंका ने भी सार्क में भारत के पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी चीन को बड़ी भूमिका देने की वकालत की।
भारत की चिंताएँ
श्रीलंका को लेकर भारत की दिलचस्पी या चिंता मोटे तौर पर दो बिंदुओं पर केंद्रित है। पहली उत्तर पूर्वी राज्य के तमिल समुदाय के राजनैतिक अधिकारों की हिफाजत और दूसरी अपने निजी सामरिक हितों की सुरक्षा। श्रीलंका किसे अपना दोस्त बनाए और किसे नहीं, इससे भारत को सरोकार नहीं हो सकता। लेकिन अपने पड़ोसी देशों के साथ कम से कम इतनी अपेक्षा तो वह कर ही सकता है कि वे उसके प्रति शत्रुताभाव रखने वाले पक्षों को प्रोत्साहित न करें। यह बात विशेषकर ऐसे राष्ट्र के संदर्भ में अधिक प्रासंगिक है, जिसके साथ सन् 1987 में हुए समझौते में यह प्रावधान है कि दोनों देश अपनी भूमि का इस्तेमाल एक दूसरे को नुकसान पहुँचाने वाली गतिविधियों के लिए नहीं होने देंगे। दुःखद तथ्य है कि महिंदा राजपक्षे के नेतृत्व में श्रीलंका भारत से निरंतर दूर होता चला गया है। वह चीन और पाकिस्तान के अधिक निकट आया है। उनके राजनैतिक-आर्थिक संबंधों में बेहतरी तो एक बात है, सामरिक संबंधों का विकास भारत की अपनी सुरक्षा के लिए चिंताजनक हो सकता है।
खास बात यह है कि महिंदा राजपक्षे के दौर में श्रीलंका ने भारत की चिंताओं की परवाह करना छोड़ दिया था। पिछले साल एक चीनी पनडुब्बी को अपने यहाँ पड़ाव करने की इजाजत देकर उसने स्पष्ट कर दिया था कि उसे हमारी संवेदनशीलताओं की अधिक फिक्र नहीं है। चीन के साथ संबंध प्रगाढ़ बनाने की उत्कंठा में उसने भारत की कड़ी प्रतिक्रिया को भी नजरंदाज किया। तब भारत ने कहा था कि श्रीलंका की यह कार्रवाई भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण समझी जाएगी। नरेंद्र मोदी सरकार के गठन के बाद दोनों देशों के संबंधों में सुधार का अच्छा अवसर सामने आया लेकिन जब एक बार फिर चीनी पनडुब्बी को ठहराने का मौका आया तो श्रीलंका ने फिर चीन को इसकी अनुमति दी। स्पष्ट था कि उसे भारत की नई सरकार के साथ निकटता दिखाने या उसका ख्याल करने की विशेष चिंता नहीं है। भारत के राषट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल ने इस बारे में श्रीलंका के समक्ष आधिकारिक रूप से कड़ा विरोध प्रकट किया। लेकिन राजपक्षे चीन से निकटता बढ़ाने में लगे रहे। चीनी राष्ट्रपति ली जिनपिंग ने पिछले सितंबर में श्रीलंका का दौरा भी किया था जो उनके देश की 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स' नामक रणनीति के अनुकूल है जिसके तहत वह भारत के पड़ोसियों के साथ रणनीतिक संबंध विकसित करने में जुटा हुआ है।
आएगा बदलाव?
महिंदा राजपक्षे ने भारत के साथ संबंधों में चीन का इस्तेमाल एक रणनीति के तौर पर किया। उन्होंने अपने यहाँ भारतीय निवेश की तुलना में चीनी निवेश को वरीयता दी और आज चीन उस देश के लिए सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय दानदाता बन चुका है। पहले यही दर्जा जापान का था। भारत भी श्रीलंका को खूब सहायता देता है और उसके द्वारा दी जाने वाली अंतरराष्ट्रीय सहायता में श्रीलंका का छठवां हिस्सा है। वह उत्तरी प्रांत में लगभग 50 हजार मकानों के निर्माण में भी लगा है और तमिल समस्या के दौरान नष्ट-भ्रष्ट हुए रेल नेटवर्क को दुरुस्त करने में भी जुटा है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत पश्चिमी देशों के दबावों को दरकिनार करते हुए श्रीलंका के विरुद्ध होने वाले मतदानों से ज्यादातर मौकों पर गैरहाजिर रहा है। वह भी तब जबकि खुद भारत में बहुत बड़ी श्रीलंका विरोधी, तमिल लॉबी मौजूद है और द्रमुक ने तो श्रीलंका के खिलाफ मतदान की मांग को लेकर ही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार से समर्थन तक वापस ले लिया था। भारत ने राजीव गांधी की हत्या के बाद से तमिल समस्या में भी किसी भी तरह का दखल करना छोड़ दिया था। लेकिन भारत की सदाशयता को राजपक्षे की तरफ से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता।
खैर.. राजपक्षे का चले जाना एक सच्चाई है। श्रीलंका में नई सरकार गठित हो गई है। भारत के लिए यह राहत की बात है कि दोनों ही शीर्ष व्यक्तित्व, मैत्रीपाल सिरिसेना और रानिल विक्रमसिंघे भारत के प्रति किसी तरह का पूर्वाग्रह नहीं रखते। विक्रमसिंघे को तो भारत का मित्र ही माना जाता है और वे हमारे साथ संबंध प्रगाढ़ करने के प्रबल हिमायती रहे हैं। सिरिसेना ने भी चुनाव प्रचार के दौरान खुलकर कहा है कि वे भारत के साथ अच्छे संबंध विकसित करेंगे। हालाँकि उन्होंने यह टिप्पणी भी की है कि उनकी विदेश नीति न तो भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण होगी और न ही उस पर निर्भर होगी। लेकिन मौजूदा हालात में, जब भारत ने एक पारंपरिक मित्र को चीन के हाथों खो सा दिया था, यह टिप्पणी भी साउथ ब्लॉक में सकारात्मक ढंग से ली जा रही है। नई सरकार के आने से श्रीलंका एकदम से भारत का करीबी हो जाएगा और चीन से दूरी बना लेगा, ऐसी उम्मीद कतई नहीं है। लेकिन इतनी उम्मीद तो हम लगा सकते हैं कि पड़ोस में हमारी संवेदनशीलताओं और चिंताओं का ख्याल रखा जाना फिर से शुरू होगा और कम से कम वह देश हमारे प्रति शत्रुतापूर्ण कार्रवाइयों को बढ़ावा नहीं देगा।