मनोरंजन की दुनिया का यह निस्सीम विस्तार पेशेवर कॉन्टेंट निर्माताओं के लिए एक अवसर है या चुनौती? आम लोगों द्वारा तैयार किए गए मुफ्त कॉन्टेन्ट ने इंटरनेट−उपयोक्ताओं को एक दिलचस्प वैकल्पिक माध्यम उपलब्ध कराया है इसमें कोई संदेह नहीं। इसका मुख्यधारा के निर्माताओं के बाजार पर भी कुछ न कुछ प्रभाव पड़ना लाजिमी है। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। डिजिटल माध्यमों से निर्माता जहां नए वितरण क्षेत्रों तक पहुंच गए हैं वहीं एक डिलीवरी−तंत्र के रूप में इंटरनेट ने उनके खर्च भी घटाए हैं। जिन फिल्मों को पहले सिर्फ फिल्म−रील के रूप में ही सहेजा जा सकता था वे अब डिजिटल फॉरमैट में सहेजी जाने लगी हैं जहां खर्च बेहद कम है और क्वालिटी बेहद उम्दा। इसलिए एक ओर वे आम कंप्यूटर उपयोक्ता के बनाए कॉन्टेन्ट की चुनौती का सामना कर रहे हैं वहीं उसी उपयोक्ता के इंटरनेट से जुड़े होने से लाभान्वित भी हो रहे हैं। उपभोक्ता अब उनके सीधे संपर्क में है। इंटरनेट उन दोनों के बीच की कडि़यों को समाप्त कर रहा है। दूरियों के इस संकुचन से दोनों के लिए संभावनाओं के नए मार्ग खुले हैं।फिर भी, कई मायनों में डिजिटल माध्यमों की शक्ति को लेकर मनोरंजन उद्योग में विश्वव्यापी चिंता व्याप्त है।
इंटरनेट की बुनियादी प्रकृति स्वतंत्रता की है। यह एक स्वच्छंद किस्म की लोकतांत्रिक व्यवस्था है जिसका हर नागरिक फाइबर ऑप्टिक और तांबे के तारों के जरिए विश्व के एक कोने से दूसरे कोने के बीच चलने वाले आंकिक संकेतों का मनचाहे ढंग से प्रयोग करने के लिए लगभग स्वतंत्र है। एक छोटे से कमरे के कोने में बैठकर अकेले काम कर रहा व्यक्ति तभी तक अकेला है जब तक कि वह ऐसा मानता है। वास्तव में तो वह एक विश्वव्यापी संजाल का हिस्सा है। ठीक उसी समय इंटरनेट से जुड़े करोड़ों लोगों के समूह का एक सक्रिय सदस्य। वर्चुअल विश्व की इस अपरिमित शक्ति, उदारता और लोकतांत्रिकता की तुलना जरा वास्तविक विश्व की सीमाओं और नियंत्रणों से करके देखें तो दोनों को परस्पर विपरीत ध्रुवों पर खड़ा पाएंगे। मनोरंजन जगत को ही लें जिसने अपने बौद्धिक संपदा अधिकारों, अपनी रचनाओं और विचारों को न जाने कितने कानूनी और तकनीकी तालों में कैद कर रखा है।
तकनीक और मनोरंजन एक दूसरे के लिए अनजाने नहीं हैं। वे एक−दूसरे के साथ निखरते हैं, और भी अधिक प्रभावशाली बनते हैं। लेकिन व्यावहारिकता के धरातल पर दोनों की प्रकृति और लक्ष्य अलग−अलग हैं। इसीलिए, जब एक सामान्य कंप्यूटर उपयोक्ता इंटरनेट से जुड़ता है तो हॉलीवुड और बॉलीवुड, सारेगामा से लेकर एचएमवी और 'स्टार प्लस' और 'आज तक' तक के कान खड़े हो जाते हैं। एक अच्छा कंप्यूटर और एक अच्छा इंटरनेट कनेक्शन आम कंप्यूटर उपयोक्ता को वह ताकत दे देता है जो विश्व की बड़ी से बड़ी संगीत कंपनी या फिल्म निर्माता के लिए चुनौती पैदा कर दे। वह एक व्यक्ति उसके कॉपीराइट−युक्त गीत−संगीत, वीडियो, फिल्मों, नाटकों और अन्य सामग्री को इंटरनेट पर ब्राडकास्ट करने लगे तो उसके एक से दो, दो से चार और चार से सैंकड़ों होते हुए करोड़ों तक पहुंचने में बहुत अधिक समय नहीं लगता। नैपस्टर का प्रयोग इसे सिद्ध कर चुका है।
इंटरनेट और कंप्यूटर का प्रयोग मनोरंजन के लिए किया जाए या नहीं, यह भी लंबे विवाद का विषय रहा है। जो लोग दीवार के इस ओर हैं वे उसकी मनोरंजक विषय−वस्तु को इंटरनेट विविधता का विस्तार मानते हैं। वे इसे एक नीरस संचार−नेटवर्क का नवागत श्रृंगारिक पहलू, एक मल्टीमीडिया क्रांति का सुखद स्पर्श और विभिन्न माध्यमों के एक−साथ आने से उपजी कनवरजेंस रूपी फेनोमेनन के रूप में संबोधित करते हैं। लेकिन जो लोग दीवार के उस ओर हैं, उनके लिए यह उनके वैध हितों पर बेवजह कुठार चलाती अनियंत्रित और विवेकहीन स्वच्छंदता है जिसे अविलंब अनुशासन के घेरे में लाए जाने की जरूरत है।
नैपस्टर ने इसी अनुशासन को तोड़ा था। वह पी2पी (पियर टू पियर) नेटवर्क की अवधारणा पर आधारित था और इस तरह के नेटवर्क में विश्व के एक कोने में मौजूद व्यक्ति दूसरे कोने में इंटरनेट से जुड़े व्यक्ति से सीधे जुड़ा होता है। ईमेल प्रणालियों की भांति बीच में कोई तीसरा व्यक्ति नहीं होता। यही नैपस्टर की सफलता का राज था और यही उसके समापन का कारण भी बना। दो लोग स्वतंत्र रूप से अपने डिजिटल कान्टेंट का लेनदेन कर पाएं, बिना उसके कॉपीराइटधारक की अनुमति लिए? ऐसा भला कितने दिन चलता। नैपस्टर बहुत जल्द सबके निशाने पर आ गया और महज दो साल के भीतर उसे विदा होना पड़ा। लेकिन उसके पांच−छह साल बाद फिर कई पी2पी नेटवर्क सामने आ गए हैं जिन पर लोग संगीत, वीडियो, सॉफ्टवेयरों, ई−बुक्स, फिल्मों और अन्य फाइलों का आदान−प्रदान कर रहे हैं। उन लोगों से जिन्हें वे नहीं जानते। काजा, ग्रोकस्टर और बिट−टोरेन्ट जैसे सॉफ्टवेयरों ने पी2पी के क्षेत्र में फिर एक क्रांति का उद्घोष किया है। उन्होंने फिर हॉलीवुड, बॉलीवुड, टॉलीवुड और अन्य सभी ..वुडों के लिए खतरे की घंटी बजा दी है।
नैपस्टर और नए जमाने के पी2पी सॉफ्टवेयरों में एक बुनियादी भिन्नता है। नैपस्टर में केंद्रीकृत मास्टर सर्वरों का प्रयोग होता था, यानी पी2पी नेटवर्क होने के बावजूद वह स्वयं सारे नेटवर्क का स्वामी और सारे कॉन्टेंट के संरक्षक की भूमिका में था। इसीलिए वह आसानी से कानूनी कार्रवाई के निशाने पर आ गया। बहरहाल, नए पी2पी नेटवर्क न सिर्फ पूरी तरह विकेंद्रीकृत हैं बल्कि उनमें किसी एक फिल्म या वीडियो को छोटे−छोटे हिस्से में अलग−अलग स्रोतों से डाउनलोड किए जाने की भी व्यवस्था है। ये हिस्से आपके कंप्यूटर में आने के बाद फिर से जोड़े जा सकते हैं। इस सारी प्रक्रिया में अनेक लोगों ने भूमिका निभाई लेकिन कोई नहीं जानता कि फिल्म का कौनसा हिस्सा कहां से आया। इसी वजह से इस तरह के नेटवर्क में किसी एक व्यक्ति को पहचान पाना मुश्किल है और निशाना बनाना भी। अपने आंकिक अधिकारों के प्रबंधन (डिजिटल राइट्स मैनेजमेंट) के लिए बेहद चिंतित हॉलीवुड स्टूडियो और संगीत कंपनियों के लिए यह फिर से एक उलझन का समय है, जो इंटरनेट के अथाह विस्तार का लाभ तो उठाना चाहती हैं लेकिन इस दोधारी तलवार के प्रहार से किसी भी तरह की हानि उठाने के लिए तैयार नहीं।
आपको पता होगा कि आजकल मनोरंजन और मीडिया की दुनिया की दिग्गज कंपनियां अपने डिजिटल राइट्स को लेकर नई−नई तकनीकों पर काम कर रही हैं। इन तकनीकों का बुनियादी मकसद इस बात को सुनिश्चित करना है कि कोई व्यक्ति उनके कॉन्टेन्ट की प्रति बनाकर उसका वितरण या विक्रय न कर सके। लेकिन उनका सामना इंटरनेट समाज के ऐसे नागरिकों से है जिनके बारे में कहा जाता है कि उनमें से हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी के कॉपीराइट का उल्लंघन कर किसी न किसी स्तर पर कॉन्टेंट की चोरी और वितरण से जुड़ा है। ये कंपनियां अपने प्रोग्रामरों के जरिए ऐसी डिजिटल डिस्कों का विकास कर चुकी हैं जिनसे डेटा कॉपी नहीं होता। लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। वे यह भी चाहती हैं कि हर कंप्यूटर के ऑपरेटिंग सिस्टम (विंडोज या लिनक्स आदि) में इस बात की व्यवस्था हो कि वह संगीत या वीडियो फाइलों को कॉपी ही न करने दे।
यह कोई नई लड़ाई नहीं है। जब सोनी ने सत्तर के दशक में पहले पहल डबल कैसेट रिकॉर्डर बाजार में उतारा था तब भी मनोरंजन उद्योग में जबरदस्त हलचल हुई थी। इस रिकॉर्डर के जरिए उपभोक्ता एक कैसेट की हूबहू दूसरी प्रति तैयार कर सकता था जो मनोरंजन उद्योग के हितों के विरुद्ध था। मुकदमा चला और सोनी की जीत हुई। लेकिन वह जमाना और था। सामान्य उपभोक्ता के पास तब प्रतिलिपि बनाने की क्षमता तो थी लेकिन कोई वितरण नेटवर्क नहीं था, जैसा कि आज इंटरनेट के रूप में है। ऐसा नेटवर्क जिस पर लगभग एक भी पैसा खर्च किए बिना आप किसी भी कॉन्टेन्ट की लाखों प्रतियां इधर से उधर पहुंचा सकते हैं।
आज इंटरनेट पर दो अलग−अलग गुटों के बीच जबरदस्त द्वंद्व की स्थित हिै। पहला है कॉन्टेन्ट समूह जिसमें विभिन्न कॉपीराइट धारक, फिल्म निर्माता, गायक, अभिनेता, संगीतकार, प्रकाशक आदि शामिल हैं। दूसरा समूह है टेक्नॉलॉजी समूह जिसमें इंटरनेट कंपनियां, आईटी कंपनियां, सॉफ्टवेयर निर्माता और डिजिटल वितरण यंत्रों (सीडी, डीवीडी, ब्लू रे, इंटरनेट राउटर आदि−आदि) का निर्माण करने वाली कंपनियां शामिल हैं। दोनों के मकसद और सिद्धांत अलग−अलग हैं। मनोरंजनात्मक कॉन्टेन्ट दोनों की गतिविधियों के केंद्र में है। उनके टकराव से आने वाले दिनों में डिजिटल माध्यमों पर मनोरंजन के नए कायदे लिखे जाने हैं।
समस्या यह है कि तकनीकी कंपनियों के लिए उनके उत्पादों का खरीदार एक 'यूजर' (उपयोक्ता) है। वे अपने उपकरणों और सॉफ्टवेयरों में वह सब कुछ भरना चाहती हैं जो यूजर का तकनीकी अनुभव सुखद और विस्तीर्ण बनाएं। वे उसे हर किस्म की सुविधा देना चाहते हैं, उसे तकनीकी शक्ति से सम्पन्न करना चाहते हैं क्योंकि यही उनके व्यावसायिक हित में है। दूसरी ओर संगीत, फिल्म और मीडिया कंपनियों के लिए उनका उपभोक्ता एक 'उपभोक्ता' है। वे उसे उतनी ही सामग्री देना चाहती हैं जिसके लिए उसने भुगतान किया है। उससे जरा भी अधिक नहीं क्योंकि यही उनके व्यावसायिक हित में है। इंटरनेट आधारित मनोरंजन की क्रांति होने इन दोनों के हितों की लड़ाई के सुलटने का इंतजार कर रही है। वह अद्भुत क्रांति जो संगीत, वीडियो, फिल्म और पुस्तकों के साथ हमारे संबंधों को पुनर्परिभाषित करेगी।