ऐसा रूपांतरकारी परिवर्तन सदी में एकाध बार ही होता है। सोलहवीं सदी के बाद कई सदियों तक जनसंचार और जनसूचना माध्यम के रूप में प्रिंट मीडिया का एकाधिकार रहा। स्थिर, स्थायी, निश्चिंत, अपरिवर्तित भाव से बढ़ता रहा प्रिंट मीडिया। पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में जाकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उसकी शांति भंग की। एक दूसरे के लिए खतरा बनने की बजाय उन्होंने पारस्परिक सहजीवन को अनुकूल पाया और साथ−साथ रहते−बढ़ते रहे। दोनों की अलग−अलग शैलियां, अलग−अलग प्रस्तुति और अलग−अलग प्रभाव। अरसे बाद मीडिया की निश्चलता में दूसरा बड़ा उद्वेलन आया है− न्यू मीडिया के जरिए। न्यू मीडिया, यानी ऐसा मीडिया जिसकी विषय−वस्तु के निर्माण या प्रस्तुति में कंप्यूटर या अन्य डिजिटल यंत्रों की कोई न कोई भूमिका है। 1995 में आम लोगों तक इंटरनेट के प्रसार के बाद से न्यू मीडिया का प्रभाव निरंतर बढ़ता चला गया है।मीडिया में तकनीक के दखल से आया यह उद्वेलन न सिर्फ पहले से अलग है बल्कि इसके दूरगामी निहितार्थ हैं। यह विषय वस्तु (कॉन्टेंट) के स्वरूप, प्रस्तुति तथा सूचनाओं के डिलीवरी−मैकेनिज्म को ही नहीं बल्कि मीडिया की बुनियादी अवधारणा को भी बदलने की क्षमता रखता है क्योंकि न्यू मीडिया की मूल प्रकृति इंटरएक्टिव है। पाठक के साथ सीधा संपर्क इसकी बुनियादी विशेषता है। पारंपरिक मीडिया के 'एक प्रकाशक, अनेक पाठक' वाले एकाधिकारवादी स्वरूप को न्यू मीडिया के 'अनेक प्रकाशक, अनेक पाठक' वाले अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक स्वरूप से बड़ी चुनौती मिल रही है। ऐसी चुनौती जो न रेडियो ने दी थी न टेलीविजन ने, और जो मीडिया को आमूलचूल बदल सकती है। लेकिन सिर्फ चुनौती ही क्यों, मीडिया के लिए यह एक बहुमूल्य अवसर भी तो है। अपना विकास व विस्तार करने का, तकनीक के अधिक करीब आने का, पाठकों से सीधे संवाद का और अपने आर्थिक साम्राज्य को फैलाने का भी। भविष्य की ओर दृष्टि रखने वाला कोई भी संस्थान या व्यक्ति इस रोमांचक, निस्सीम और त्वरित माध्यम से असंबद्ध नहीं रह सकता।
सुधीजनों को इस चुनौती का अहसास है। प्रिंट और टेलीविजन की जकड़बंदी से बाहर निकलकर डिजिटल माध्यम की संभावनाओं को अपनाने की होड़ शुरू भी हो गई है। तभी तो बीबीसी अपने 12 लाख घंटों के टेलीविजन कार्यक्रमों का वेबीकरण करने में जुटा है। तभी तो टाइम्स घराने से लेकर छोटीकाशी.कॉम (बीकानेर से संचालित समाचार पोर्टल) तक इंटरनेट पर आ गए हैं। तभी तो सीएनएन−आईबीएन से लेकर एनडीटीवी और टाइम्स नाऊ तक आम लोगों को सिटीजन रिपोर्टर बनाने में जुटे हैं। तभी तो गूगल पचासों लाख पुस्तकों को डाउनलोड करने और सर्च करने लायक बनाने के लिए उनके डिजीटाइजेशन में जुटा है। तभी तो एक्सप्रेसइंडिया से लेकर टाइम्स समूह और सीएनएन से लेकर डीएनए तक ने अपने पाठकों को बेखौफ टिप्पणियां करने के लिए ब्लॉगिंग का मंच मुहैया करा दिया है।
सैंकड़ों साल का बुजुर्ग मीडिया अचानक नए जमाने की तकनीकी वियाग्रा की शक्ति से ऊर्जावान होकर छैल−छबीला बन रहा है। यह संक्रमण का एक महत्वपूर्ण दौर है जिसमें भागीदारी न करना अदूरदर्शितापूर्ण ही नहीं, घातक भी हो सकता है। बीबीसी की न्यू मीडिया शाखा के प्रमुख एश्ले हाईफील्ड के शब्दों में− पांच साल बाद सिर्फ वही मीडिया संस्थान बचेंगे जो तेज होंगे। प्रसारकों को उसके लिए अभी से तैयार होना होगा− अपने डिजिटल अधिकार सुरक्षित करने होंगे, समाचार संकलन ब्रांड तैयार करने होंगे, अभिलेखीय सामग्री को (वेबयुग के लिए) तैयार करना होगा और तकनीक में निवेश करना होगा− अन्यथा उन्हें चंद वर्षों में डिजिटल डायनासोर बन जाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
भारतीय संदर्भों में शायद यह बात अतिशयोक्ति लगेगी क्योंकि हमारे यहां प्रिंट, टेलीविजन और रेडियो, तीनों ही क्षेत्रों में इन दिनों लगभग उसी तरह विस्तार हो रहा है जैसे कि न्यू मीडिया में। उधर अमेरिका और इंग्लैंड में प्रिंट व टेलीविजन के लिए न्यू मीडिया एक बड़ी चुनौती बन चुका है और अमेरिकी ऑडिट ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के मुताबिक पिछले एक साल में न्यूयॉर्क टाइम्स, न्यूयॉर्क पोस्ट, न्यूज−डे, वाशिंगटन पोस्ट आदि के सर्कुलेशन में औसतन पांच फीसदी की गिरावट आई है। उधर अखबारों की वेबसाइटों के पाठकों में छह फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। क्या यह पारंपरिक से न्यू मीडिया या ऑफलाइन से ऑनलाइन की ओर हो रहे स्थानांतरण का संकेत है? क्या यह बात भारतीय परिस्थितियों में भी लागू होती है? फौरी तौर पर तो शायद नहीं क्योंकि मीडिया के ट्रेंड्स के मामले में हम पश्चिम से कुछ वर्ष पीछे चलते रहे हैं।
पश्चिमी देशों में समाज के निम्नतम स्तर, यानी मोहल्लों तक के अखबार निकल रहे हैं लेकिन यह ट्रेंड अब तक भारत नहीं पहुंचा है और उधर पश्चिम में इसकी विदायी की तैयारी भी हो गई है। मोबाइल फोन पर 3−जी सेवाओं का हमारे देश में कोई सुस्पष्ट आगमन अब तक नहीं हुआ है जबकि पश्चिम में वे बीते जमाने की बात हो गई हैं। लेकिन न्यू मीडिया की बात अलग है। वह भारत में मौजूद तो है ही, शुरूआती धीमी प्रगति के बाद अब कंप्यूटर व इंटरनेट के प्रसार के दम पर पंख फैलाने की तैयारी कर रहा है। भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं की संख्या सितंबर 2006 के 3.22 करोड़ से बढ़कर सितंबर 2007 में 4.6 करोड़ हो गई है। एक साल में 40 फीसदी की वृद्धि निश्चित रूप से आने वाले दिनों का एक संकेत है।
ऐसे में क्या न्यू मीडिया को वैकल्पिक मीडिया मानकर उससे असंबद्ध रहना संभव है? शायद नहीं क्योंकि न्यू मीडिया वस्तुतरू बदलते समय का माध्यम है और यह अन्य सूचना व संचार माध्यमों से अलग, विमुख या स्वतंत्र किस्म की छोटी−मोटी फेनोमेनन नहीं है। यह अब तक के सभी मीडिया स्वरूपों से विशाल, तकनीक−समृद्ध, शक्तिशाली और व्यापक माध्यम है जिसमें पारंपरिक मीडिया को समाहित कर लेने तक की क्षमता और संभावना दोनों है। यह कोई शत्रुतापूर्ण शक्ति नहीं बल्कि मैत्रीपूर्ण माध्यम है और सबके लिए उपलब्ध है, पुराने मीडिया के लिए भी।
सूचनाओं को सीमाओं से मुक्त करने वाले हस्तक्षेप का नाम ही न्यू मीडिया है। वह विभिन्न माध्यमों को साथ लाने, उनके बीच अंतर−संबंध विकसित करने, उन्हें परिवर्द्धित−समृद्ध करने और नई संभावनाओं से जोड़ने वाला माध्यम है। उसका कलेवर इतना विशाल है कि वह एक ही स्थान पर अनेक पारंपरिक मीडिया को साथ आने, अपनी पहचान बनाए रखते हुए अभिव्यक्ति को व्यापक बनाने का अवसर देता है। एक ही वेब पेज पर खबर, उससे जुड़े वीडियो, ऑडियो, तसवीरों, पुरानी खबरों की कडि़यों, पाठकीय टिप्पणियों व चर्चाओं आदि को रखने की उसकी क्षमता सिद्ध करती है कि वह वैकल्पिक माध्यम से कहीं बड़ी चीज़ है। यह क्षमता पुराने मीडिया में नहीं थी क्योंकि प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन की विषय−वस्तु अलग−अलग माध्यमों से ही प्रसारित होती थी।
एक खुला और काफी हद तक नियंत्रणमुक्त माध्यम होने के नाते न्यू मीडिया की विषयवस्तु में गुणवत्ता, वजन, साख, प्रामाणिकता आदि के मामले में कुछ सीमाएं हैं। लेकिन फिर उसने मीडिया में सदियों से प्रचलित इस अवधारणा को भी पहली बार खंडित करने का दुस्साहस किया है कि विषयवस्तु (कॉन्टेंट) ही सबकुछ है (कॉन्टेंट इज किंग)। वह सिर्फ खबरों तक सीमित नहीं है बल्कि ईमेल से लेकर सर्च इंजन, सॉफ्टवेयर डाउनलोड से लेकर वीडियो साइट, समाचार पोर्टल से लेकर ई−कॉमर्स, फोटो−शेयरिंग वेबसाइटों से लेकर चैट तक और सामाजिक मेलजोल के पोर्टलों से लेकर ब्लॉग तक न्यू मीडिया के दायरे में आते हैं। उसकी बुनियादी अवधारणा खबर और सूचना से कहीं व्यापक है। इंग्लैंड में न्यू मीडिया के ताजा आंकड़ों के अनुसार वहां शीर्ष बीस में से सिर्फ सात वेबसाइटें ही समाचार, लेख या अन्य विषय−वस्तु पर आधारित हैं। बाकी हैं माईस्पेस, ओरकुट, फेसबुक, बेबो जैसी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटें, ईमेल, चैट आदि से जुड़ी वेबसाइटें और पोर्टल।
यानी भविष्य का मीडिया सीमाओं के बारे में नहीं, सीमाएं खत्म करने के बारे में है। हम इतिहास के उस दौर में हैं जहां खबरों और सूचनाओं के केंद्रीकृत नियंत्रण की व्यवस्था खतरे में है। शेन बोमैन और क्रिस विलिस के शब्दों में कहें तो खबरों के चौकीदार के रूप में पारंपरिक मीडिया की भूमिका को सिर्फ तकनीक या प्रतिद्वंद्वियों से ही खतरा नहीं है बल्कि उसके अपने उपयोगकर्ताओं से भी है। क्योंकि न्यू मीडिया ने उपयोगकर्ता को सप्लायर भी बना दिया है। मीडिया के लिए इस अजीबोगरीब युगांतरकारी संक्रमण के माहौल में आम आदमी से जुड़ना और अपना स्वरूप बदलना शायद एक विकल्प नहीं बल्कि अनिवार्यता हो गया है।