पारंपरिक मीडिया से अधिक पहुँच और सुलभ होने के बावजूद वह विनियमन और नियंत्रणों से लगभग पूरी तरह मुक्त है। ऑनलाइन मीडिया पर हर तरह के तत्वों की मौजूदगी है, जिम्मेदार पत्रकारों, रचनाकर्मियों, एक्टिविस्ट्स और शौकिया लेखकों से लेकर साइबर अपराधियों, जासूसों, वायरस निर्माताओं, कट्टरपंथियों और आतंकवादियों तक का अजीबोगरीब घालमेल है इस मीडिया में, जहाँ अपना अलग मीडिया खोल लेना कीबोर्ड के चंद स्ट्रोक्स और माउस के कुछ क्लिक्स जितना ही आसान है। यहाँ बहुत कुछ अच्छा और आदर्श है लेकिन बहुत कुछ विद्रूपताओं से युक्त भी है। जाहिर है, सोशल मीडिया के संदर्भ में ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ के मुद्दे को थोड़ा अलग ढंग से देखे जाने की जरूरत है। यहाँ उसे सार्वत्रिक नहीं, संगठन-सापेक्ष, व्यक्ति-सापेक्ष यहाँ तक कि कन्टेन्ट-सापेक्ष माना जा सकता है।
भारत संघ बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “एकतरफा सूचनाएँ, गलतबयानी, दुर्भावनापूर्ण ढंग से तोड़ी-मरोड़ी गई सूचनाएँ और सूचना-विहीनता, सभी एक सूचना-विहीन नागरिक समाज निर्मित करती हैं जो लोकतंत्र को दिखावटी बना देता है।“ अभिव्यक्ति की आज़ादी उत्तरदायित्व के साथ आती है लेकिन सोशल मीडिया में आप किसे और कैसे अपने उत्तरदायित्व के बारे में जागरूक बनाएँगे जो टिप्पणी करने वालों को गुमनाम बने रहने का भी मौका देता है? यह सूचनाओं को कट-पेस्ट और फॉरवर्ड करने की सुविधा देता है जिसमें पलक झपकते ही सूचनाएँ हजारों माध्यमों से गूंजने लगती हैं। सही-गलत का फैसला होने से पहले ही उन पर प्रतिक्रिया हो जाती है। यदि बाद में संबंधित कन्टेन्ट को आपत्तिजनक माना भी जाए तो उसके मूल स्रोत का पता लगाना आसान नहीं है। यह अनूठा मीडिया आपको टिप्पणी करके उसे हटाने की सुविधा भी तो देता है? जैसे ही बात फैली, अपनी टिप्पणी हटा लीजिए और तमाशा देखिए। अब कौनसी जिम्मेदारी, कानून के दायरे में लाए जाने की कैसी आशंका? इस बीच, कोई शख्स, कोई समाज, कोई व्यवस्था या कोई देश न जाने कितना कुछ झेल चुका होता है। टिप्पणी के लेखक को अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार प्राप्त है तो क्या उस व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं है जिसके विरुद्ध टिप्पणियों के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया गया है?
कौनसी बात अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में आती है और कौनसी साइबर अपराध के दायरे में आती है, इसका फैसला कैसे हो? इस संदर्भ में पहली जरूरत है कॉमन सेंस की। वही कॉमन सेंस जिसकी वजह से आज भी राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और मंत्रियों पर आक्रामक और चुटीले व्यक्तिगत कार्टून बनाना संभव है और वही कॉमन सेंस जिसके आधार पर अखबार सरकारी फैसलों, नीतियों, भ्रष्टाचार और नाकारापन की धज्जियाँ उड़ाने के लिए स्वतंत्र हैं। कोई शख्स यदि प्रधानमंत्री के दफ्तर या किसी आम नागरिक के नाम से भी झूठा खाता बनाता है तो क्या वह अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में आएगा? वह तो साइबर अपराध है!
जाहिर है, कहीं न कहीं एक अदृश्य ‘लक्ष्मण रेखा’ जरूर है, जिसे समझते तो सब हैं लेकिन जिसे भौतिक शक्ल देना मुश्किल है। इसी लक्ष्मण रेखा की वजह से पारंपरिक मीडिया सेल्फ-रेगुलेशन जैसी बात करता है। वह न्यायपालिका, संसद, राष्ट्रीय एकता, सांप्रदायिक सद्भाव जैसे मुद्दों पर सतर्कता बरतता है, बलात्कार की शिकार महिलाओं के नाम उजागर नहीं करता और न ही हिंसा के दृश्यों के चित्र दिखाता है। वह अश्लील शब्दों को छापने से बचता है। कोई भी खबर छापने से पहले वह उसके संभावित दुष्परिणामों पर जरूर गौर करता है, भले ही मीडिया में मौजूद लोगों की अच्छी खासी संख्या किसी न किसी राजनैतिक पक्ष से सहानुभूति रहती हो। जो बात नैतिक तथा कानूनी आधार पर रोजमर्रा के बर्ताव में नहीं की जा सकती और जो बात पारंपरिक मीडिया में प्रकाशन के योग्य नहीं है, वह ऑनलाइन मीडिया के योग्य भी नहीं हो सकती। इस लक्ष्मण रेखा को लांघने वाले कन्टेन्ट के साथ ‘मुद्रित शब्द की पवित्रता’ की भावना नहीं जोड़ी जा सकती।
दुर्भाग्य से सोशल मीडिया पर इस तरह की जिम्मेदारी की भावना लागू कर पाना फिलहाल व्यावहारिक प्रतीत नहीं हो रहा। न ही उसने स्वयं ही अपने लिए ऐसी व्यवस्था ही बनाई है। ताजा घटनाक्रम में जहाँ एक ओर सरकारी अति-प्रतिक्रिया की छीछालेदर हो रही है, वहीं खुद सोशल मीडिया की भी छवि खराब हुई है। सरकारें अगर उसे रेगुलेट करने या उस पर निगरानी रखने की बात कर रही हैं तो यह सिर्फ उनके निजी असुरक्षा-बोध के कारण नहीं है। समाजवादी पार्टी और जनता दल यूनाइटेड जैसे दल सोशल मीडिया पर अस्थायी पाबंदी की वकालत करते हैं तो वह उनके निजी समीकरणों या राजनैतिक स्वार्थवश मात्र नहीं हो सकती क्योंकि वे सरकार में नहीं हैं। उनके निजी हित मौजूदा परिघटना से प्रभावित नहीं होते। ऐसे में यह मान लेने में बुराई नहीं है कि वे संभवतः तसवीर का एक दूसरा पहलू दिखाने की कोशिश कर रहे हैं जिसे सोशल मीडिया अपने जोश और उग्रता में कहीं अनदेखा कर रहा है।
सन 2012 के अंत में पूर्वोत्तर की घटनाएँ एक शुरूआत है। ऐसी घटनाएँ आगे न हों, यह सुनिश्चित करना जरूरी है और यह सिर्फ सरकार का दायित्व नहीं है। यह एक सामाजिक दायित्व भी है। ऑनलाइन माध्यमों का इस्तेमाल करने वाले हम लोगों को इसे ज्यादा गंभीरता से लेने की जरूरत है। शायद वह समय आ गया है जब सोशल मीडिया वेब-सेंसरशिप का हो-हल्ला मचाने की बजाए दूसरों की जायज चिंताओं को भी समझे। जहाँ सरकार को नए मीडिया के प्रति बेहतर समझबूझ और संयम दिखाने की जरूरत है वहीं इक्कीस साल के वयस्क वर्ल्ड वाइड वेब को कम से कम अब तो आत्म-विवेचना, आत्मालोचना और आत्म-नियमन में जुटना चाहिए।