अप्रैल 2011 में अन्ना हजारे ने दिल्ली में अपना पहला अनशन शुरू किया तो देश के युवा वर्ग के बीच उम्मीद की बिजली सी कौंध गई। ऐसा लगा कि करोड़ों युवाओं को सदाचार, सच्चाई और संकल्प का वह प्रतीक मिल गया है जिसकी वह कई दशकों से तलाश कर रहा था। अन्ना की आदर्शवादी बातें, उनके सिद्धांत और सादगी ने युवाओं पर गहरा असर डाला जिन्हें उनके सरोकार और पृष्ठभूमि वास्तविक प्रतीत हो रहे थे। इंटरनेट, मोबाइल और सोशल नेटवर्किंग के युग में अन्ना का संदेश युवाओं के बीच कुछ इस अंदाज में फैला कि देखते ही देखते अन्ना और उनका दल युवकों के आदर्श और उनका जुनून बन गए। रोहतक जिले के किसी गाँव से आने वाले युवक से लेकर दिल्ली के ग्रेटर कैलाश जैसे धनाढ्य इलाके की फैशनेबल युवती तक अन्ना के साथ आ जुटे- एक टीम की तरह। उनकी एक आवाज आती तो लोगों के बीच से आती हजारों आवाजें आसमान गुंजा देतीं।
यह वही युवा वर्ग था जो न जाने कबसे निरुद्देश्य गतिविधियों, इंटरनेट, फेसबुक और गपशप में समय व्यर्थ कर रहा था लेकिन कहीं न कहीं उसके मन में इस देश और समाज की मौजूदा हालत के प्रति असंतोष और विद्रोह की भावना दबी पड़ी थी। उन्हें जरूरत थी एक सच्चे मार्गदर्शक की, एक उत्कृष्ट उत्प्रेरक की और एक सही मौके की। यह वही वक्त था जब आठ शहरों के युवाओं के बीच किए गए टाइम्स ऑफ इंडिया के सर्वे में 41 प्रतिशत ने अन्ना हजारे को आदर्श नागरिक बताया। सचिन तेंदुलकर 17 और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह सिर्फ आठ प्रतिशत युवाओं की पसंद बने। लेकिन धीरे-धीरे हालात कुछ इस अंदाज में बदले कि अन्ना और उनके आंदोलन से बाकी लोगों की तरह युवा वर्ग का मोहभंग होता चला गया। युवाओं को साथ लेकर ऐतिहासिक राजनैतिक तथा सामाजिक क्रांति की आशा बांधने वालों को एक बार फिर निराशा हाथ लगी। अब न जाने उम्मीद की अगली किरण कब प्रस्फुटित होगी।
अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों के दौरान उमड़ी जोशीले युवाओं की भीड़ से इस धारणा पर तो स्थायी विराम लग जाना चाहिए कि आज के युवा अपने समय, समाज और राजनीति से कटे हुए हैं या बेपरवाही की शीतनिद्रा से ग्रस्त हैं। पिछले एक साल की घटनाएँ बताती हैं कि भारतीय युवक न सिर्फ समकालीन समस्याओं, चुनौतियों और गिरावटों से बाखबर है बल्कि इनसे छुटकारा पाने के लिए बेचैन भी है। लेकिन उसके सामने दिशा स्पष्ट नहीं है और न ही उनकी अपरिमित शक्ति का देश हित में सार्थक इस्तेमाल करने का कोई सुस्पष्ट जरिया ही उपलब्ध है। जिस दिशाहीनता को भोगने के लिए वह मजबूर है, वह उसकी अपनी पैदाइश नहीं है। वह अपनी नई पीढ़ी को हमारा उपहार है। उन लोगों का जो स्वप्न तो राष्ट्र के लिए देखते हैं लेकिन जब उन पर अमल की बारी आती है तो निजी स्वार्थों को वरीयता देते हैं। जो यह उपदेश तो खूब देते हैं कि देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराना जरूरी है, उसे सुदृढ़ व सुरक्षित बनाने के लिए अनुशासन, कड़ी मेहनत, बलिदान की भावना और निःस्वार्थ योगदान जरूरी है लेकिन जब इन्हीं उपदेशों पर अमल की बारी आती है तो दूसरों की ओर इशारा कर देते हैं।
कब ऐसे लोग सामने आएँगे जो भ्रष्टाचार, जुल्म, अत्याचार, शोषण, अमानवीयता, भेदभाव और अकर्मण्यता जैसी सामाजिक रुग्णताओं के विरुद्ध मजबूती के साथ खड़े होंगे और देश के पचास करोड़ से ज्यादा युवाओं के लिए मिसाल बनेंगे। जिनके लिए देश हित निजी हित से ऊपर होगा, सिर्फ कथनी में ही नहीं बल्कि करनी में भी। जो युवा शक्ति के अनंत उफान को सार्थक दिशा में मोड़ने की दृष्टि और जज्बा दिखाएँगे।
वरदान है युवाओं की ताकत
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने हाल ही में भारत की सबसे बड़ी संपदाओं को गिनाते हुए कहा था कि एक तो इस राष्ट्र को प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों की सौगात मिली है, दूसरे पिछले साठ साल में उसने काफी तरक्की की है और सबसे ऊपर है हमारे 54 करोड़ युवाओं की ताकत। यदि समाज के इस तबके को सशक्त बनाया जाए तो मुझे विश्वास है कि हम भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का लक्ष्य सन 2020 से भी पहले हासिल किया जा सकता है।
डॉ. कलाम के शक्तिशाली विचारों से असहमत होने का कोई कारण नहीं है। लेकिन प्रश्न उठता है कि हम अपनी युवा पीढ़ी को आखिर सशक्त कब बनाएँगे? कब उसे सार्थक शिक्षा, कौशल, प्रशिक्षण, नवाचार, स्वरोजगार, व्यवसाय और रोजगार के सही अवसर मुहैया कराएँगे? चौवन करोड़ युवाओं वाला यह देश आखिर कब ओलंपिक खेलों में बीस-बीस लाख की आबादी वाले देशों से पिछड़ने के अभिशाप से मुक्त होगा? जनसंख्या के मामले में दूसरे और युवाओं की संख्या के लिहाज से पहले स्थान पर आने वाला यह राष्ट्र आर्थिक तरक्की, मानव विकास, भ्रष्टाचार-निरोध, खेलकूद जैसी तालिकाओं में निचले स्थानों पर अवतरित होने की विडंबना से आजाद होगा?
प्रश्न उठता है कि दुनिया भर में इन दिनों भारत के पक्ष में बैठने वाले जिस सबसे महत्वपूर्ण पहलू की चर्चा की जा रही है उसके प्रति हम खुद कितने जागरूक हैं? जिस देश में जोश, यौवन और संकल्प से भरे 54 करोड़ सुशिक्षित युवाओं की कतार मौजूद हो, उसके लिए क्या सीमाएँ और क्या रुकावटें! चीन, अमेरिका, जापान और रूस जैसे राष्ट्र जहाँ एक ओर बुढ़ा रहे हैं, वहीं भारत जवान हो रहा है। एक अच्छा और दृष्टिवान नेतृत्व हो तो इस अद्भुत शक्ति के बल पर क्या कुछ नहीं किया जा सकता? उद्योग-धंधों, सर्विस सेंटरों, सरकारी दफ्तरों, कारोबार, राजनीति, शिक्षा, विज्ञान, सुरक्षा, खेल-कूद जैसे क्षेत्रों की शक्ल बदल सकती है। भारत उत्पादन और सेवा क्षेत्र की वैश्विक राजधानी बन सकता है। पूरी दुनिया को कुशल प्रोफेशनल्स मुहैया कराने वाला जरिया बन सकता है यह देश क्योंकि आज हमारे पास रोजगार लायक 54 करोड़ युवा हाथ मौजूद हैं जो 2030 तक 65 करोड़ तक पहुँच जाएंगे।
गोल्डमैन सैक्स के अनुसार सन 2020 में भारतीय नागरिकों की औसत आयु होगी 29 साल जबकि चीनियों की 37 और यूरोपियनों की 49 साल होगी। युवा शक्ति के जरिए अर्थव्यवस्था और तकनीक में नई ऊँचाइयाँ छू सकते हैं हम। लेकिन कहाँ है वह नेतृत्व जिसके पास इतनी अपार जनशक्ति का उपयोग करने की दृष्टि और इच्छाशक्ति हो? और हमारा युवा वर्ग स्वयं अपनी शक्ति तथा दायित्वों के प्रति कितना जागरूक और तैयार है?
इतना तो है कि आज का युवा शिक्षा, तकनीक और संसाधनों के लिहाज से पहले की तुलना में अधिक सशक्त है। अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर भारत के बदलते दर्जे ने उसका आत्मविश्वास भी बढ़ाया है और बाजार में उभरते अवसरों के प्रति आकर्षण भी पैदा हुआ है। शिक्षा और रोजगार के प्रति उसकी सोच बदली है। अब बीए करके किसी दफ्तर में लग जाना मात्र उसका सपना नहीं है। सरकारी नौकरी पाना आज कल जैसा आकर्षक लक्ष्य नहीं रहा, जहाँ काम न करते हुए वेतन लेते रहने की आजादी है। आज का युवा तो काम करना चाहता है। वह देश की तरक्की, उसकी अर्थव्यवस्था में हाथ बँटाना चाहता है। कितने ही युवा नौकरियाँ छोड़कर अपने निजी कामधंधे शुरू करने के लिए प्रेरित हो रहे हैं। डॉ. कलाम का यह कथन उनका मार्गदर्शन करता है कि नौकरी पाना तुम्हारा उद्देश्य नहीं होना चाहिए बल्कि खुद को इस योग्य बनाओ कि दूसरों को नौकरी दे सको। लेकिन उन सबके लिए इतने सारे अवसर भी तो पैदा करने होंगे। अपने युवाओं को संरक्षण भी तो देना होगा।
युवाओं को कैसे आगे बढ़ाता है चीन
इस संदर्भ में चीन के उदाहरण का जिक्र किया जा सकता है। इंटरनेट के क्षेत्र में गूगल, फेसबुक, अमेजॉन जैसी बड़ी-बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियाँ हैं। वे भारत सहित पूरी दुनिया में बेरोकटोक पाँव पसार रही हैं। लेकिन चीन ने महसूस किया कि इंटरनेट के क्षेत्र में उभरता अरबों डालर का स्थानीय बाजार किसी बाहरी कंपनी के हाथ में क्यों जाए? उसने विदेशी कंपनियों को हमारी तरह खुली छूट देने की बजाए स्थानीय युवा व्यवसायियों की इंटरनेट कंपनियों को प्रोत्साहित किया। आज गूगल के विकल्प बाइदू की बाजार कीमत चालीस अरब डालर के करीब (दो लाख करोड़ रुपए से ज्यादा) है तो ट्विटर के विकल्प सीना को 3 अरब डालर (15000 करोड़ रुपए) का आँका गया है। वे बहुराष्ट्रीय इंटरनेट दिग्गजों को टक्कर ही नहीं दे रहे, कई जगह उन पर भारी भी पड़ रहे हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि चीन ने अपने युवा उद्यमियों को स्थानीय बाजार पर पकड़ बनाने का अवसर दिया जबकि हमने अपने युवाओं को विदेशी कंपनियों के लिए बाजार में तब्दील कर दिया।
युवाओं की बदौलत भारत को जो जनसंख्यामूलक लाभ मिल रहा है, वह सन 2050 तक ही रहेगा। उसके बाद हमारे यहाँ युवाओं की संख्या में गिरावट आने लगेगी। फिर भी युवा शक्ति का इस्तेमाल करने के लिए हमारे पास करीब-करीब चालीस साल है। इस दौरान भारत का युगांतरकारी परिवर्तन संभव है। सन 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने और दूसरे विश्वयुद्ध में अपमानजनक पराजय झेलने के बाद जापान हर लिहाज से शक्तिहीन और पंगु हो चला था। लेकिन अपने राष्ट्रीय संकल्प और युवाओं की ताकत के बल पर वह एक बार फिर उठ खड़ा हुआ। छोटे आकार और छोटी जनसंख्या वाले इस देश ने अपने बड़े हौंसलों और अटूट संकल्प के साथ इतनी तरक्की की कि देखते ही देखते दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बन गया। अपनी पराजय के दस साल के भीतर उसने बुलेट ट्रेन बना ली और उन्नीसवें साल में ओलंपिक खेलों का आयोजन कर लिया।
जापान के पास न तो हम जैसा संख्याबल था और न ही हमारे जितने प्रचुर प्राकृतिक संसाधन। उसने जो कुछ किया, मेहनत, लगन, संकल्प और प्रतिभा के बल पर किया। हम तो उसकी तुलना में कहीं अधिक सौभाग्यशाली हैं। और फिर हमारे पास उससे कहीं अधिक समय है। समृद्ध, गौरवशाली इतिहास और आदर्श, प्रेरणादायी व्यक्तित्व भी हमारी मजबूती हैं। युवाओं को चाहिए कि स्वामी विवेकानंद, जिनके जन्मदिन को हम राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाते हैं, के शब्दों को ब्रह्मवाक्य मानकर देश की शक्ल बदलने में जुट जाएँ, जिन्होंने कहा था- उठो, चलो और तब तक मत रुको जब तक कि लक्ष्य हासिल न हो जाए। और फिर यह भी कि 'सारी शक्ति तुम्हारे भीतर समाहित है। अपने में भरोसा रखो, तुम कुछ भी करने में सक्षम हो।'
हमारे युवाओं को अपनी शक्ति का अहसास अवश्य है। टाइम्स ऑफ इंडिया के सर्वे में सवाल पूछा गया था कि भारत की सबसे बड़ी शक्ति क्या है। इसके जवाब में 61 प्रतिशत युवाओं ने कहा- युवा शक्ति। यह उनके आत्मविश्वास को दिखाती है। सोलह-सोलह प्रतिशत ने भारत की उभरती अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र को देश की सबसे बड़ी शक्ति माना। युवा शक्ति में युवाओं का गहरा विश्वास एक अच्छी चीज है लेकिन यदि देश को अपने संसाधनों का बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के साथ इस्तेमाल करना है तो युवाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के अवसर मुहैया कराने होंगे। शुरूआत राजनीति से ही हो सकती है, जहाँ जीवन का सातवां और आठवां दशक व्यतीत कर रहे राजनीतिज्ञ सेवानिवृत्त होने के लिए तैयार ही नहीं हैं। यदि एक नेता एक लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व पिछले चार या पाँच दशक से कर रहा है तो यह उसकी लोकप्रियता तथा राजनैतिक कौशल का उदाहरण तो अवश्य है लेकिन क्या उस क्षेत्र के लाखों लोगों, विशेषकर प्रतिभाशाली युवाओं के साथ नाइंसाफी नहीं? अपने चुनाव क्षेत्र में जो लोग पाँच-पाँच दशक तक किसी दूसरे शख्स को उभरने ही नहीं देते वे आखिर किस आधार पर युवा शक्ति के बल पर देश का चेहरा बदलने की बात करते हैं!